सखि वे मुझसे कहकर जाते: यशोधरा का विरह और स्वाभिमान | मैथिलीशरण गुप्त | Sakhi Ve Mujhse Kah Kar Jate | Maithilisharan gupt

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प्रस्तावना

'सखि, वे मुझसे कहकर जाते' गीत मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित चम्पू काव्य "यशोधरा "से लिया गया है। "यशोधरा" काव्य सिद्धार्थ के गौतम और महात्मा बुद्ध बनने की यात्रा पर आधारित काव्य है,जिसमें यशोधरा के चरित्र की नवीन व्याख्या की गई है।

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मैथिलीशरण गुप्त के काव्य संग्रह "यशोधरा" में संकलित "सखि वे मुझसे कहकर जाते" कविता महात्मा बुद्ध के बचपन और उनके गृह त्याग की कहानी को यशोधरा के दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है। कविता में यशोधरा अपने पति गौतम के बिना रह जाने के दुख और विरह का वर्णन करती है।




कविता का मूल भाव

संकलित अंश में सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) की पत्नी अपने पति के उसे बिना बताए चुपचाप चले जाने पर अपनी सहेली के समक्ष अफसोस व दुख व्यक्त कर रही है।यहां यशोधरा दुखी मन से अपनी सहेली से अपनी वेदना प्रकट करते हुए कहती है कि उसके पति सिद्धि प्राप्त करने के लिए गए हैं- यह बहुत गौरव की बात है लेकिन बिना बताए गए,यह अत्यंत दुखदायी है। यदि वे बताकर जाते तो क्या यशोधरा उनके मार्ग की बाधा बनती ? (अर्थात वो बाधा नहीं बनती).


कविता में यशोधरा अपने पति गौतम के बिना रह जाने के दुख और विरह का वर्णन करती है। वह बार-बार कहती है कि अगर गौतम उसे बताकर जाते तो वह उनकी राह में बाधा नहीं बनती। वह कहती है कि स्त्रियां कभी भी अपने पति की राह में बाधा नहीं बनती, बल्कि उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। यशोधरा को दुख है कि गौतम ने उसे बिना बताए ही घर छोड़ दिया। वह कहती है कि अब वह अपने भाग्य को ही अभागा मानती है।


कविता की विशेषताएं

आगे यशोधरा कहती है कि गौतम ने उनको माना बहुत लेकिन पहचान नहीं पाए। वह खुश होकर वही करती,जो एक बार उनके पति के मन में आ जाता था।वह पुन: अफसोस करती है कि वे बताकर नहीं गए।यशोधरा अपनी सखी को अपने क्षत्राणी के धर्म का परिचय देते कहती है कि आवश्यकता पड़ने पर वह अपने पति को प्राणों की बाजी लगाने हेतु स्वयं सुसज्जित कर रणभूमि में भेज देती ! अब तो वह अपने भाग्य को कोसती है कि वह गर्व भी किस पर करे कि जिसने अपनाया था,उसी ने त्याग दिया।अब तो केवल स्मृतियां ही शेष हैं। यशोधरा की आँखों से बहने वाले आँसू इन्हें निष्ठुर कहते हैं लेकिन वह जानती है कि वे इतने दयालु हैं कि यशोधरा की आँखों में आँसू सहन नहीं कर सकते।यशोधरा को विश्वास है कि उन्हें अवश्य  उसकी दशा पर तरस आता होगा। इतने दुखों के बावजूद वह अपने पति के प्रति सदभावनाओं से भरी है। वह कामना करती है कि वे सुखपूर्वक उन सिद्धियों को प्राप्त करें, जिनके लिए उन्होंने गृहत्याग किया था और यह भी चाहती है कि उस साधारण मनुष्य (यशोधरा) के दुख से वे दुखी न हों ।यशोधरा आज उनको उलाहना भी नहीं देना चाहती क्योंकि  अपने दिव्य गुणों के कारण वे उसे और अधिक भाने लगे हैं।आशावादी स्वर में यशोधरा अपनी सखी से कहती है कि वे गए हैं तो लौटेंगे भी और साथ में  कुछ असाधारण उपलब्धियाँ लेकर लौटेंगे। सवाल यही है कि क्या यशोधरा तब तक अपने प्राणों को विसर्जित होने से रोक पाएगी अथवा रोते-रोते वह उनके स्वागत में गीत गा पाएगी? अन्तिम पंक्तियों में पुनः यशोधरा गौतम के बिना बताए चले जाने पर दुख व्यक्त करती हैं।


कविता में यशोधरा के स्वाभिमान का चित्रण किया गया है। वह अपने पति के बिना रह जाने के दुख को सहती है, लेकिन वह अपने स्वाभिमान को नहीं भूलती। कविता में विरह की भावना का मार्मिक वर्णन किया गया है। यशोधरा के मन की पीड़ा और उसकी आशा-निराशा की भावनाएं कविता में स्पष्ट रूप से उभरती हैं। कविता की भाषा सरल और सुबोध है। छंद योजना भी सुंदर है।


कविता का सार

इस प्रकार 'सखि, वे मुझसे कहकर जाते' कविता में गुप्त जी ने एक बार फिर से नारी जीवन के प्रति अपनी उदार व करुण दृष्टि का परिचय दिया है। यशोधरा के माध्यम से प्रकारान्तर से कवि ने बताया है कि पुरुषों का गृह त्यागी होकर संन्यासी हो जाना स्त्रियों की तुलना में काफी सरल है।


यशोधरा अपने पति गौतम के बिना रह जाने के दुख और विरह का वर्णन करती है। वह कहती है कि अगर गौतम उसे बताकर जाते तो वह उनकी राह में बाधा नहीं बनती। वह कहती है कि स्त्रियां कभी भी अपने पति की राह में बाधा नहीं बनती, बल्कि उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। यशोधरा को दुख है कि गौतम ने उसे बिना बताए ही घर छोड़ दिया। वह कहती है कि अब वह अपने भाग्य को ही अभागा मानती है।


विडिओ देखिए


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सखि वे मुझसे कह कर जाते | मैथिलीशरण गुप्त



मैथिलीशरण गुप्त

(03 अगस्त 1886 – 12 दिसम्बर 1964)


हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था। उनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' की पदवी भी दी थी। उनकी जयन्ती 3 अगस्त को हर वर्ष 'कवि दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन 1954 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया।


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सखि, वे मुझसे कहकर जाते,

कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?


मुझको बहुत उन्होंने माना

फिर भी क्या पूरा पहचाना?

मैंने मुख्य उसी को जाना

जो वे मन में लाते।

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।


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स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,

प्रियतम को, प्राणों के पण में,

हमीं भेज देती हैं रण में -

क्षात्र-धर्म के नाते

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।


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हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,

किसपर विफल गर्व अब जागा?

जिसने अपनाया था, त्यागा;

रहे स्मरण ही आते!

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।


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नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,

पर इनसे जो आँसू बहते,

सदय हृदय वे कैसे सहते ?

गये तरस ही खाते!

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।


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जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,

दुखी न हों इस जन के दुख से,

उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ?

आज अधिक वे भाते!

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।


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गये, लौट भी वे आवेंगे,

कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,

रोते प्राण उन्हें पावेंगे,

पर क्या गाते-गाते ?

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

 
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